आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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प्रकृति के रुद्राभिषेक
आज भोजवासा चट्टी पर आ पहुँचे। कल प्रात: गोमुख के लिए रवाना होना है। यहाँ यातायात नहीं है, उत्तरकाशी और गंगोत्री के रास्ते में यात्री मिलते हैं। चट्टियों पर ठहरने वालों की भीड़ भी मिलती है, पर वहाँ वैसा कुछ नहीं। आज कुल मिलाकर हम छ: यात्री हैं। भोजन अपना-अपना सभी साथ लाए हैं, यों कहने को तो भोजवासा की चट्टी है, यहाँ धर्मशाला भी है, पर नीचे की चट्टियों जैसी सुविधा यहाँ कहाँ है?
सामने वाले पर्वत पर दृष्टि डाली तो ऐसा लगा मानो हिमगिरि स्वयं अपने हाथों भगवान् शंकर के ऊपर जल का अभिषेक करता हुआ पूजा कर रहा हो। दृश्य बड़ा ही अलौकिक था। बहुत ऊपर से एक पतली-सी जलधारा नीचे गिर रही थी। नीचे प्रकृति के निमित्त बने शिवलिंग थे, धारा उन्हीं पर गिर रही थी। गिरते समय वह धारा छींटे-छीटे हो जाती थी। सूर्य की किरण उन छींटों पर पड़कर उन्हें सात रंगों के इन्द्र धनुष जैसा बना देती थी। लगता था साक्षात् शिव विराजमान हैं, उनके शीश पर आकाश से गंगा गिर रही है और देवता सप्त रंगों से पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। दृश्य इतना मन-मोहक था कि देखते-देखते मन नहीं अघाता था। उस अलौकिक दृश्य को तब तक देखता ही रहा जब तक अन्धेरे ने पटाक्षेप नहीं कर दिया।
सौन्दर्य आत्मा की प्यास है, पर वह कृत्रिमता की कीचड़ में उपलब्ध होना कहाँ सम्भव है? इन वन पर्वतों के चित्र बनाकर लोग अपने घरों में टाँगते हैं और उसी से सन्तोष कर लेते हैं; पर प्रकृति की गोद में जो सौन्दर्य का निर्झर बह रहा है, उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। यहाँ इसे सारे ही रास्ते में सौन्दर्य बिखरा पड़ा था। हिमालय को सौन्दर्य का सागर कहते हैं। उसमें स्नान करने से आत्मा में, अन्त:प्रदेश में एक सिहरन-सी उठती है, जी करता है इस अनन्त सौन्दर्य राशि में अपने आपको खो क्यों न दिया जाय?
आज का दृश्य यों प्रकृति का एक चमत्कार ही था, पर अपनी भावना उसमें एक दिव्य झाँकी का आनन्द लेती रही, मानो साक्षात् शिव के ही दर्शन हुए हों। इस आनन्द की अनुभूति में आज अन्त:करण गद्गद् होता जा रहा है। काश ! ऐसे रसास्वादन को एक अंश में लिख सकना मेरे लिए सम्भव हुआ होता, तो जो यहाँ नहीं हैं, वे भी कितना सुख पाते और अपने भाग्य को सराहते।
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